Question 1.Asked on :07 September 2019:07:04:49 PM
बहुसंख्यक वाद से आप क्या समझते है ?
-Added by Khushi ChauhanPolitical Science » सत्ता की साझेदारी
Answer:
Akki chauhan अल्पसंख्यकों के लिए पाँच केन्द्रीय विश्वविद्यालय खोलने की घोषणा हुई है। प्रश्न उठता है कि कौन से अल्पसंख्यक है? क्योंकि भारतीय संविधान की धारा 29 अल्पसंख्यक के सन्दर्भ में धर्म, नस्ल, जाति और भाषा- ये चार आधार देती है। हमारे शासक कहते रहें है कि ‘मेरी सरकार किसी धार्मिक समूह, चाहे वह बहुसंख्यक समुदाय से जुड़ा हो या अल्पसंख्यक से, को दूसरांे के खिलाफ खुले या छिपे तौर पर घृणा फैलाने की अनुमति नहीं देती’, लेकिन इसका पालन तब तक हो ही नहीं सकता जब तक कानूनी रूप से स्पष्ट न किया जाए कि बहुसंख्यक कौन है? किस आधार पर है और कहां हैं? स्पष्ट है कि जब तक बहुुसंख्यक को साफ-साफ परिभाषित न करें तब तक ऐसी सदिच्छाआंे पर अमल असम्भव है। सामुदायिक घृणा की खुली और छुपी अभिव्यक्ति की पहचान करने में निष्पक्षता जरूरी है। ऐसा करने वाले को दंडित करने में कोताही न हो, चाहे वह किसी भी समुदाय का और कैसी भी हैसियत का हो। यदि शासन ऐसा करने में विफल रहे तो लोगों में प्रतिक्रिया होगी। विशेषकर इस कारण कि अल्पसंख्यक का एक सीमित अर्थ करके उसके लिए विविध विशेषाधिकार, सुविधाएं, संसाधन आदि बना-बनाकर दशकों से घातक राजनीति हो रही है। दूसरी ओर गैर-अल्पसंख्यक को कानूनी रूप से कोई नाम, पहचान भी नहीं दी गई है। देश हित में यह जरूरी है कि किसी समुदाय को, चाहे वह अल्पसंख्यक हो या बहुसंख्यक, मनमाने तरीके न अपनाने दिए जाएं। इसके लिए संवैधानिक-कानूनी विषमता दूर करना जरूरी है जिससे स्वतंत्र भारत में बहुत बड़ा अन्याय स्थापित हो गया है। यह अन्याय अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की परिभाषा, विकृति तथा पक्षपात से सम्बन्धित है। इससे ‘कानून के समक्ष समानता’ का संविधानिक सिद्धान्त धीरे-धीरे बिल्कुल बेकार होकर रह गया है। किसी अल्संख्यक नेता की आपत्ति पर किसी लेखक के भारत आने पर आपत्ति लगा देना, अल्पसंख्यक केन्द्रित इलाकों में विशेष शिक्षण संस्थान खोलना, चयन समितियों में अल्पसंख्यक प्रतिनिधि को स्थान देना आदि कार्य किस सिद्धान्त पर किए गए? सभी मामलों में अल्पसंख्यक का अर्थ केवल मजहबी, वह भी केवल एक समुदाय के लिए किया गया। इस प्रकार अल्पसंख्यक का विशेष अर्थ बना देना और फिर मनमाने निर्णय करना देश और समाज के हित में नहीं, पर अल्पसंख्यक के लिए यह सब करने का चलन इतना नियमित हो गया है कि उसे सहज समक्षा जाता है। यह देश के लिए विघटनकारी है। अल्पसंख्यक का अर्थ एक विशेष समुदाय मात्र संविधान में कहीं नहीं है, लेकिन व्यवहार में यही हो गया है। यह अभूतपूर्व स्थिति है कि किसी देश में अल्पसंख्यक को वे अधिकार मिलें जो शेष नागरिकों के ना मिले हों। पश्चिमी लोकतंत्रों में ‘माइनारिटी प्रोटेक्शन’ का अर्थ यह है कि किसी के अल्संख्यक होने के कारण उसे ऐसे अधिकार से वंचित न रहना पड़े, जो अन्य सब को है। मगर भारत में उसी अवधारणा का अनर्थ कर दिया गया है। सच तो यह है कि ‘माइनारिटी’ वाली अवधारणा की जरूरत ही नहीं थी। ब्रिटिश भारत में कोई नस्लवादी या सामुदायिक उत्पीड़न नहीं था, अगर था तो गोरे अंग्रेजों यानी लघुतम अल्पसंख्यक को विशिष्ट अधिकार हासिल थे। उससे वंचित समुदाय तो बहुसंख्यक हिन्दु ही थे जिन्हें जजिया देना पड़ता था और जिन्हंे रामनवमी, दशहरा के जुलूस निकालने की मनाही थी। भारत में अल्पसंख्यक संरक्षण के अवधारणा मतिहीन होकर अपना ली गई, जिसका कोई संदर्भ यहाँ न था। इसे जिस पश्चिम से लिया गया वहाँ इसका यह अर्थ कतई नहीं की अल्पसंख्यक को ऐसे विशेषाधिकार दें जो शेष लोगों को न मिले हों, मगर भारत में यही अन्धेर हो गया है। क्या कोई भारतीय सरकार इसे बन्द नहीं करेगी? सबसे विचित्र गड़बड़ी यह है कि संविधान या कानून में बहुसंख्यक का कहीं कोई उल्लेख नहीं किया गया है। इससे कानूनी तौर पर अस्तित्व ही नहीं है। जब लिखित कानूनी धाराओं पर भारी मतभेद होते है, जो न्यायिक निर्णयों में दिखते भी हैं तब किसी अलिखित धारणा पर क्या होता होगा, यह अनुमान कर ले। इसलिए यहाँ अल्पसंख्यक के नाम पर भयंकर राजनीतिक खेल और कानूनी पक्षपात चलते रहे हैं। अल्पसंख्यक को दोहरे नागरिक अधिकार मिल गए है, जो सामान्य दृष्टि से भी घोर अन्याय है। भारत में कोई अल्पसंख्यक के रूप में भी अदालत का दरवाजा खटखटा सकता है। इस प्रकार एक मुस्लिम भारतीय नागरिक और अल्पसंख्यक दोनों रूपों में अधिकार रखता है, किन्तु एक हिन्दू केवल नागरिक के रूप में। हिन्दू के रूप में वह न्यायालय से कुछ माँग नहीं सकता, क्योंकि संविधान में हिन्दू या बहुसंख्यक जैसी कोई मान्यता ही नही है। अल्पसंख्यक के लिए निरन्तर बढ़ते, उग्रतर होेते, विशिष्ट संस्थान, सुविधाएं आदि कार्य घोर अन्यायपूर्ण रहे हैं। यह गैर-अल्पसंख्यकों पर डाकेजनी है, जो इतने खुले रूप में हो रही कि डाकेजनी नहीं लगती। शरलक होम्स के मुहावरों में कहें तो ‘इट इज शो ओवर्ट, इट इज कोवर्ट’। यानी कोई लूट ऐसे दिन-दहाड़े हो रही कि छिप जाती है। लगता है कि इसमें कोई गलत बात नहीं, तभी तो सबके सामने हो रही है। हमारे संविधान निर्माताओं ने अल्पसंख्यकों को समान अधिकार सुनिश्चित करना चाहा था, कोई विशेषाधिकार देना नहीं चाहा था, लेकिन चूँकि संविधान में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक दोनों अपरिभाषित रह गया इसलिए उसका दुरूपयोग जारी है। यही अन्याय मूलतः सत्ता की जबरदस्ती और आम अज्ञान के कारण होता रहा है। इसमें वोटों का खेल जरूर है, पर यह इसलिए सम्भव हुआ, क्योंकि मूल प्रश्न अनुत्तरित है कि बहुसंख्यक कौन है? इस समस्या का सबसे सरल उपाय यह है कि संसद में एक विधेयक लाकर घोषित कर लिया जाए कि संविधान की धारा 25 से 30 वर्णित अधिकार सभी समुदायों के लिए समान रूप से दिए गए हैं। ऐसी व्यवस्था दे देने से किसी अल्पसंख्यक का कुछ नहीं छिनेगा। केवल दूसरों को भी वह मिल जाएगा जो उनसे धीरे-धीरे राजनीतिक छल करके छीन लिया गया है। केन्द्र सरकार इस छल के आधार को सदा के लिए खत्म कर दे तो सामुदायिक भेदभाव की राजनीति सदा के लिए खत्म होने का मार्ग खुल जाएगा। अन्यथा संगठित वोट के लोभ में लिए जानते-बूझते सामुदायिक अन्याय बढ़ता जाएगा और उसकी प्रतिक्रिया भी होगी। ु - लेखक राजनीति शास्त्र के प्रोेफेसर एवं स्तम्भकार है।
-Answered by Akki chauhan On 11 September 2019:11:15:54 AM(9872Average Rating Based on rating)
Answer:
priyanshu kumar अल्पसंख्यकों के लिए पाँच केन्द्रीय विश्वविद्यालय खोलने की घोषणा हुई है। प्रश्न उठता है कि कौन से अल्पसंख्यक है? क्योंकि भारतीय संविधान की धारा 29 अल्पसंख्यक के सन्दर्भ में धर्म, नस्ल, जाति और भाषा- ये चार आधार देती है। हमारे शासक कहते रहें है कि ‘मेरी सरकार किसी धार्मिक समूह, चाहे वह बहुसंख्यक समुदाय से जुड़ा हो या अल्पसंख्यक से, को दूसरांे के खिलाफ खुले या छिपे तौर पर घृणा फैलाने की अनुमति नहीं देती’, लेकिन इसका पालन तब तक हो ही नहीं सकता जब तक कानूनी रूप से स्पष्ट न किया जाए कि बहुसंख्यक कौन है? किस आधार पर है और कहां हैं? स्पष्ट है कि जब तक बहुुसंख्यक को साफ-साफ परिभाषित न करें तब तक ऐसी सदिच्छाआंे पर अमल असम्भव है। सामुदायिक घृणा की खुली और छुपी अभिव्यक्ति की पहचान करने में निष्पक्षता जरूरी है। ऐसा करने वाले को दंडित करने में कोताही न हो, चाहे वह किसी भी समुदाय का और कैसी भी हैसियत का हो। यदि शासन ऐसा करने में विफल रहे तो लोगों में प्रतिक्रिया होगी। विशेषकर इस कारण कि अल्पसंख्यक का एक सीमित अर्थ करके उसके लिए विविध विशेषाधिकार, सुविधाएं, संसाधन आदि बना-बनाकर दशकों से घातक राजनीति हो रही है। दूसरी ओर गैर-अल्पसंख्यक को कानूनी रूप से कोई नाम, पहचान भी नहीं दी गई है। देश हित में यह जरूरी है कि किसी समुदाय को, चाहे वह अल्पसंख्यक हो या बहुसंख्यक, मनमाने तरीके न अपनाने दिए जाएं। इसके लिए संवैधानिक-कानूनी विषमता दूर करना जरूरी है जिससे स्वतंत्र भारत में बहुत बड़ा अन्याय स्थापित हो गया है। यह अन्याय अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की परिभाषा, विकृति तथा पक्षपात से सम्बन्धित है। इससे ‘कानून के समक्ष समानता’ का संविधानिक सिद्धान्त धीरे-धीरे बिल्कुल बेकार होकर रह गया है। किसी अल्संख्यक नेता की आपत्ति पर किसी लेखक के भारत आने पर आपत्ति लगा देना, अल्पसंख्यक केन्द्रित इलाकों में विशेष शिक्षण संस्थान खोलना, चयन समितियों में अल्पसंख्यक प्रतिनिधि को स्थान देना आदि कार्य किस सिद्धान्त पर किए गए? सभी मामलों में अल्पसंख्यक का अर्थ केवल मजहबी, वह भी केवल एक समुदाय के लिए किया गया। इस प्रकार अल्पसंख्यक का विशेष अर्थ बना देना और फिर मनमाने निर्णय करना देश और समाज के हित में नहीं, पर अल्पसंख्यक के लिए यह सब करने का चलन इतना नियमित हो गया है कि उसे सहज समक्षा जाता है। यह देश के लिए विघटनकारी है। अल्पसंख्यक का अर्थ एक विशेष समुदाय मात्र संविधान में कहीं नहीं है, लेकिन व्यवहार में यही हो गया है। यह अभूतपूर्व स्थिति है कि किसी देश में अल्पसंख्यक को वे अधिकार मिलें जो शेष नागरिकों के ना मिले हों। पश्चिमी लोकतंत्रों में ‘माइनारिटी प्रोटेक्शन’ का अर्थ यह है कि किसी के अल्संख्यक होने के कारण उसे ऐसे अधिकार से वंचित न रहना पड़े, जो अन्य सब को है। मगर भारत में उसी अवधारणा का अनर्थ कर दिया गया है। सच तो यह है कि ‘माइनारिटी’ वाली अवधारणा की जरूरत ही नहीं थी। ब्रिटिश भारत में कोई नस्लवादी या सामुदायिक उत्पीड़न नहीं था, अगर था तो गोरे अंग्रेजों यानी लघुतम अल्पसंख्यक को विशिष्ट अधिकार हासिल थे। उससे वंचित समुदाय तो बहुसंख्यक हिन्दु ही थे जिन्हें जजिया देना पड़ता था और जिन्हंे रामनवमी, दशहरा के जुलूस निकालने की मनाही थी। भारत में अल्पसंख्यक संरक्षण के अवधारणा मतिहीन होकर अपना ली गई, जिसका कोई संदर्भ यहाँ न था। इसे जिस पश्चिम से लिया गया वहाँ इसका यह अर्थ कतई नहीं की अल्पसंख्यक को ऐसे विशेषाधिकार दें जो शेष लोगों को न मिले हों, मगर भारत में यही अन्धेर हो गया है। क्या कोई भारतीय सरकार इसे बन्द नहीं करेगी? सबसे विचित्र गड़बड़ी यह है कि संविधान या कानून में बहुसंख्यक का कहीं कोई उल्लेख नहीं किया गया है। इससे कानूनी तौर पर अस्तित्व ही नहीं है। जब लिखित कानूनी धाराओं पर भारी मतभेद होते है, जो न्यायिक निर्णयों में दिखते भी हैं तब किसी अलिखित धारणा पर क्या होता होगा, यह अनुमान कर ले। इसलिए यहाँ अल्पसंख्यक के नाम पर भयंकर राजनीतिक खेल और कानूनी पक्षपात चलते रहे हैं। अल्पसंख्यक को दोहरे नागरिक अधिकार मिल गए है, जो सामान्य दृष्टि से भी घोर अन्याय है। भारत में कोई अल्पसंख्यक के रूप में भी अदालत का दरवाजा खटखटा सकता है। इस प्रकार एक मुस्लिम भारतीय नागरिक और अल्पसंख्यक दोनों रूपों में अधिकार रखता है, किन्तु एक हिन्दू केवल नागरिक के रूप में। हिन्दू के रूप में वह न्यायालय से कुछ माँग नहीं सकता, क्योंकि संविधान में हिन्दू या बहुसंख्यक जैसी कोई मान्यता ही नही है। अल्पसंख्यक के लिए निरन्तर बढ़ते, उग्रतर होेते, विशिष्ट संस्थान, सुविधाएं आदि कार्य घोर अन्यायपूर्ण रहे हैं। यह गैर-अल्पसंख्यकों पर डाकेजनी है, जो इतने खुले रूप में हो रही कि डाकेजनी नहीं लगती। शरलक होम्स के मुहावरों में कहें तो ‘इट इज शो ओवर्ट, इट इज कोवर्ट’। यानी कोई लूट ऐसे दिन-दहाड़े हो रही कि छिप जाती है। लगता है कि इसमें कोई गलत बात नहीं, तभी तो सबके सामने हो रही है। हमारे संविधान निर्माताओं ने अल्पसंख्यकों को समान अधिकार सुनिश्चित करना चाहा था, कोई विशेषाधिकार देना नहीं चाहा था, लेकिन चूँकि संविधान में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक दोनों अपरिभाषित रह गया इसलिए उसका दुरूपयोग जारी है। यही अन्याय मूलतः सत्ता की जबरदस्ती और आम अज्ञान के कारण होता रहा है। इसमें वोटों का खेल जरूर है, पर यह इसलिए सम्भव हुआ, क्योंकि मूल प्रश्न अनुत्तरित है कि बहुसंख्यक कौन है? इस समस्या का सबसे सरल उपाय यह है कि संसद में एक विधेयक लाकर घोषित कर लिया जाए कि संविधान की धारा 25 से 30 वर्णित अधिकार सभी समुदायों के लिए समान रूप से दिए गए हैं। ऐसी व्यवस्था दे देने से किसी अल्पसंख्यक का कुछ नहीं छिनेगा। केवल दूसरों को भी वह मिल जाएगा जो उनसे धीरे-धीरे राजनीतिक छल करके छीन लिया गया है। केन्द्र सरकार इस छल के आधार को सदा के लिए खत्म कर दे तो सामुदायिक भेदभाव की राजनीति सदा के लिए खत्म होने का मार्ग खुल जाएगा। अन्यथा संगठित वोट के लोभ में लिए जानते-बूझते सामुदायिक अन्याय बढ़ता जाएगा और उसकी प्रतिक्रिया भी होगी। ु - लेखक राजनीति शास्त्र के प्रोेफेसर एवं स्तम्भकार है।
-Answered by priyanshu kumar On 03 October 2019:01:52:17 PM(11927Average Rating Based on rating)
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